Friday, October 2, 2020

 


बेगानी हो चली है जिंदगी 


है बेगानी सी हो चली है जिंदगानी। 

पीर बढ़ा कितनी बेबसी हो बेगानी 

आँखें रोती ,दिल भी रोता

जीवन में हुई कितनी कमी।


निर्मम जीवन कितना है बन गया 

जेहन को कमजोर बना चला गया 

वो सघन पथ सदा दिखाती  

थकते है हमें देखो डराती ।

 

कैसे मानें जो बीत गई सो बात गई।


 जीवन में सुरजसा चमकता सितारा था। 

जो हमको बेहद जांन से भी प्यारा था। 

वह डूब गया तो डूब गया।

हमको अकेला छोड़ गया। 


क्यों दिखलाते अंबर के आंगन को 

बहलाते होहमको हर पल छिन को

कितने इसके तारे टूटे 

कितने इसके प्यारे छूटे? 


प्रभु अब उन टूटे तारों को पाऊं कहाँ 

खो गए उन प्यारों का प्यार मिले जहां

कब अंबर शोक मनाता है 

मुझको बहुत याद आता है


चंद यादों के सिवा क्या रह गया है। 

बीते लम्हों का सिर्फ कतरा बचा है।

सिलसिला ही बस बचा रह जाएगा

 कानों में गूंज आवाज नहीं आएगा 


काफिले छोडे हमें एकांकी छोड़ चल दिए  

आत्मविस्मृत  होकर तुमको ढूंढते रह गए

सूना रास्ता रह गया सूनी जिंदगी रह गई।

भटकती बंदगी तो अब अधूरी ही रह गई।

  

कहीं से कह रहे हो तुम


ए रोने वाले अपने दुःख में मुस्कुराना सीख ले।

दर्द में कराहते के आंसू पोंछना अब सीख ले।

तभी जिंदगी तेरी कहलाए असली बंदगी की,

किसी के काम आना जब तू हंसकर सीख ले।।


Alka Madhusoodan





जिंदगी तोयूं अक्सर इम्तिहान लेती रहती है।

साहस शक्ति विश्वास जीवटता भी भरती है।

पलसंघर्ष-घनेअंधेरों,सीप से मोती बनाती है। 

आंधी-तूफां में ,अपूर्व ऊर्जा प्रदान करती है।


सुनो नव प्रात हो ,नवीन आस लिए।

नव प्रीत हो सबमें ,सुंदर भाव लिए।

नव अंकुर हों ऊगे, मधुर स्नेह लिए।

मानस में  मानस, का हो प्यार लिए।

बिखरी धूंद को,विश्वास से छांट दिए।

सामने है रोशनी,अंधेरे भेदने के लिए।


विचलित मन में जब बेचैनी सी बढ़ती है,

कलम पूरी शक्ति से सदा साथ रहती है।

वही तो शब्दों की माला सी बना लेती है,

दोस्तो,हांआपके एहसास से निखरती है।



20 सितंबर 2020 रविवार

आज जबलपुर की विशेष संस्था प्रसंग द्वारा आयोजित महत्वपूर्ण जीवन साथी-जीवन संगिनी अभिनंदन समारोह में 

मेरे जीवन साथी 

*डॉ मधुसूदन पटेल* 

रिटा मुख्य चिकित्साधिकारी नाक-कान-गला विशेषज्ञ उ प्र के लिए अर्पित हैं ये पंक्तियाँ।


   2 * मेरे जीवन साथी 


*डॉ मधुसूदन पटेल* 

रिटा मुख्य चिकित्साधिकारी नाक-कान-गला विशेषज्ञ उ प्र केलिए *अर्पित* हैंये पंक्तियाँ।


ज़िन्दगी की *अनुभूतियाँ स्मृतियों* सहित सदैव साथ रहकर हर कदम में एक नया अहसास देती रहती हैं। समय बीतता जाता है यादें सतत साथ चलती हैं। ये हमारे जीवन में आये नए लाडले आगंतुकों व सभी स्नेही परिजनों के साथ जीवन की निरन्तरताको बढ़ाती रहतीं हैं। 

एक नाजुक पौधा अपने आँगन से दूजे में रोपा जाता है। जहां सम्पूर्ण स्नेह,सम्मान, सौहाद्र ,अधिकार के नवीन जीवन में अभ्यस्त हो खिलकर आनंदित होता है। जीवन की फुलवारी में इसी तरह जीवन साथी आ मिलते हैं । सारे सुख-दुःख सहित एक दूसरे के पूरक अच्छे दोस्त हमसफ़र बनते जाते हैं । एक के बिना दूजे का अस्तित्व जैसे अधूरा लगने लगता है। आपसी *आत्मिक अभिव्यक्ति- अनुरक्ति-अहमियत* बिना कहे प्रतीत होती है। 

मैं  *अलका (रानी गौर) मधुसूदनपटेल* अपना *सात्विक भावनात्मक* स्नेहिल अनुराग मेरे अतिस्नेही   जीवनसाथी *डॉ मधुसूदन पटेल* के लिए यहां सरल सार्थक शब्दों में उद्बोधित कर रही हूं।  जीवन के *अभिन्न सम्माननीय हमराही* हेतु मेरे *आत्मिक विश्लेषण* का शीर्षक।

 

*मिली रोशनी-खिली जिंदगी-

        जब हम मिले*।


अनुभव व अनुभूतियों का, नाम ही तो है जीवन।

हर कदम आया एहसास, जब हुआ *बंधन चिरंतन*।

पिता मां का छूटा आंगन, 

आई *जीवनसाथी* की छाँह में।

कितनी सौगातें अनिर्वचनीय, मिलीं *सुखों की राह* में।


आरती के दीप सा पावन स्नेह संबल उनका बंधन आजीवन।

दृगों का पावन धन,सुगंधित मधु बना दी मेरी धड़कन। 

स्वप्नों की अलका को मिला सुखद नया जीवन विहान। 

सुरभितकर सारी दुनिया में बनाई मेरी अपूर्व सूंदर पहचान ।


क्षमा करुणा दया सौहाद्र की उज्जवल प्रतिमूर्ति मिली।

आस्था विश्वास कर्तव्य स्थापत्य की मिसाल मिली। 


विहगों का अतुल्य कोलाहल भरा स्नेह पथ आन मिला।

 सुख-दुख के विराट क्षितिज को अतुल्य साथ मिला।

अन्तस् के दीपक को प्रज्वलित करने नई किरण आन मिली।

सुभाषित सौंदर्य सी जीवन परिधि विस्तारित हो चली।


साथ हाथ आगे बढ़ते चलते, खुशियों के कितने बरस बीते।

लगा कभी फिसल गयाजीवन, तो अभी कल हीतो यहां थे।

खिलते रहे निर्झर स्वप्न, उनके *स्नेहिल व्यवहार* से।

सुरभित कर मन से सारे *आदर्श* पूर्ण करते मन से।

 

बगिया में *अपूर्व* मिले ,फूल खिले,चल पड़े *नन्हे* को लिए।

*पूरक बन एक दूजे* के साथ सब अग्रसारित हुए।

जीवन की हर खुशी बांटते,

आँचल में अपने समेटे हुए।

घर *मधुर मंदिर* बनता, प्रभु की आशीष सुखद पाते हुए।


स्पंदनों का कोलाहलअविरल,  पुष्प बिछाता जीवन में।

सुख दुःख आते जाते जैसे, पतझड़ होते प्रकृति में।

कल्पनाओं को मैंने चाँद की, तरह जमीं पर छुआ है।

*निजरश्मियों* की *तेजस्विता*, को हवा कीतरह गुंजित किया है।


सुलझे साथ जीवन की सारी, खुशियों का देखा सौंदर्य।

तनमन की आतुरता कोउनसे,  मिला सूर्यकिरणों सा औदार्य।

अक्सर लगा कैसा अपूर्व, *अबूझा अलौकिक* रिश्ता है।

भावनाओं की सुंदर प्रवाहित, अविरल ये सरिता है।


जिंदगी रफ्तार पकड़ती रही, मौसमों को बदलती रही।

कभी ठहरे कभी बढ़े ,सुखों, को सदा बटोरती रही।

एक छोर से वे ,एक से मैं, संघर्षों को भी बांटते रहे।

जीवन सदा फूलों कीसेजनहीं, कांटों के बाग मिलते रहे।


कुछ छूटा बहुत मिला, तब भी नया जहां बसाते चले।

कठिनडगर मेंभीसम्मान से,कर मुझेआगे,*रक्षक* बन वे पीछे चले। 

करूँ अवलोकन तो, एक दूजे बिन जीवन अधूरा है।

उम्र आगे बढ़ती,नहीं ठहरती, ये *समय कितना प्यारा* है। *साथआपका कितना न्यारा है।*

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नमस्कार।

सभी उपस्थित बंधुओं बहिनों को नमन वंदन अभिनंदन ।

धन्यवाद।


डॉ अलका मधुसूदन पटेल








   

 

Tuesday, July 28, 2020

जब कभी मन उदास होता है ---

जब कभी मन उदास होता है ----

अक्सर सोचती हूँ , जीवन का प्रारंभ कहाँ है।
क्या सच वहीं  !वेदनाओं का आरंभ जहां है।
जब चाहा , प्रकाश , भरी अंधकार से झोली।
अब मरुस्थल अच्छा लगे ,बौछारें कटु हो लीं 
ओह ! देखकर कोई कष्टप्रद प्रत्यक्ष सजीवता।
संवेदन मन अनिश्चित, मृगमरीचिका में डोलता।
पाया संगी साथी पुत्र पौत्रों परि-प्रियजनों को।
मान-मनोव्वल से,कैसे निःसहाय किया इनको।
व्यर्थ हुआ परिभाषित,प्रतिक्षण नया आभासित।
क्या जीवन कोई घटना,प्रत्याक्षित-अप्रत्याक्षित।

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जीवन सत्य

जीवन सत्य

प्रियतम मेरे ,मैने देखा है वो जीवन का  सत्य तुम्हारी आँखों में.
वही जो कहते हैं अटल है अपेक्षित है क्यों छिपा रहा सांसों में।
डॉक्टर अच्छे रहे न तुम  मर्ज का इलाज रहा है तुम्हारे हाथों में।
जो आता रोता-घबराता , वही हँसता मिला है सदा इन राहों में.
हौले हौले वो पास आती पग बढाती समझ गए तुम जाने कैसे।
नासमझ रही मैं सोच भी न पाती क्यों हमें बिछुड़ना पड़ेगा ऐसे.
हार न मानी तुमने तन मन से दृढ़ रही कितनी इच्छाशक्ति जैसे।
आहत होते, चुनौतियाँ सहते रहे ,हिम्मत न हारी क्यों रहे धीर।
परिलक्षित देख के संकट भी ,अपने जीवट से लड़ते रहे भरपूर।
जानकर भी आसन्न विपत्ति हर पल क्षण समझाते रहते मुझको।
क्यों कैसे विधि विधान ने अचानक अभिशप्त  बना दिया मुझको।
अचानक हाथों से कोई छीन जाता है कैसे मनाऊं अपने मनको.
भाई  ने समझ लिया उन पलों को कहा अब विदाई दे दूँ तुमको।
पर तब भी क्या आशा मेरी धूमिल कर पाती खो जाने की तुमको।
क्या था तुम्हारी उन आँखों में ,कहना चाहकर ,नहीं कह रहे थे।
क्या सोचते जा रहे थे ,भटककर भी सम्हाले सब तुम जा रहे  थे,
कितनी तकलीफ थी तुमको कैसे प्रतिक्षण दूर तुम होते जा रहे थे.
उन अंतिम क्षणों में भी तुम्हारी आँखों में कितनी चमक देखते थे।
धैर्य का अधैर्य ,आपसे बिछुड़ने के गम से विगलित होते जाते थे.
कितना कठिन रहा आपके लिए भूलकर सबको धन्यवाद दे रहे थे.
विदा के उन कठिन पलों मेंभी स्मृति में उनको ले आते जा रहे थे।